Friday, 3 May 2019

सिकलिंग क्या है, इससे कैसे बचा जा सकता है।

सिकलिंग/सिकल सेल एनीमिया ....एक परिचय :- छत्तीसगढ़ एवं समीपवर्ती ओडीसा राज्य के कुछ जिलों में सिकलिंग एक जाना पहचाना रोग है ज़ो यहाँ की जन-जातियों के अतिरिक्त साहू,यादव, कुम्हार, सतनामी आदि जातियों में देखने को मिलता है. अभी तक यह लाइलाज है किन्तु संभव है कि आने वाले समय में जेनेटिक इंजीनियरिंग के द्वारा इसके लिए उत्तरदायी जीन को ठीक किया जा सके. लेकिन तब तक इस गंभीर रोग को नियंत्रित किये जाने के कुछ उपाय तो किये ही जा सकते हैं. बेहतर हो कि प्रभावित क्षेत्रों में सिकलिंग जीन वाले लोगों की पहचान की जाए और स्कूल-कालेजों  के माध्यम से लोगों को जागरूक किया जाय.



क्या है सिकलिंग ? - यह लाल रक्त कणों में पाए जाने वाले हीमोग्लोबिन की संरचनात्मक विकृति से उत्पन्न होने वाला रोग है. हीमोग्लोबिन  के निर्माण में लोहआयन- पोरफाईरिन  चेन एवं कई अमीनो एसिड्स भाग लेते हैं. सामान्य व्यक्ति के हीमोग्लोबिन में बीटा चेन के अमीनो-एसिड्स के छठवें क्रम पर  ग्ल्यूटामिक एसिड संलग्न रहता है किन्तु जीन म्यूटेशन या जेनेटिक मेटेरियल के डिलीशन से ग्ल्यूटामिक एसिड के स्थान पर "वैलीन" के कण संलग्न हो जाते हैं. बीटा चेन के १४६ अमीनो एसिड्स में से मात्र एक के स्थानापन्न से ही एक गंभीर एवं लाइलाज बीमारी उत्पन्न हो जाती है. वस्तुतः , इस  संरचनात्मक  विकृति के कारण ही हीमोग्लोबिन के कण ऑक्सीजन की कमी होने पर पॉलीमर बनाते हैं और क्रिस्टल के रूप में बदलकर रक्त-कण की मेम्ब्रेन की भीतरी सतह पर एकत्रित हो जाते हैं जिसके कारण रक्त कण का आकार विकृत होकर हंसिया की तरह हो जाता है . इस आकृति के कारण ही इस रोग का नाम सिकलिंग रखा गया है . किन्तु जिन लोगों के रक्त में सिकल सेल की संख्या ५०% तक होती है उन लोगों में रोग के लक्षण प्रायः उत्पन्न नहीं होते या बहुत कम होते हैं वह भी विशेष स्थितियों में ही .
सिकलिंग के रोगियों में मुश्किल तब शुरू होती है जब हंसिया के आकार वाली रक्त कणिकाएं अपनी आकृति के कारण छोटी-छोटी रक्त -केशिकाओं में फंस कर रह जाती हैं और आगे अपने गंतव्य तक नहीं पहुंच पातीं . इससे रक्त केशिकाओं में मार्गावारोध होकर शरीर के उस अंग में रक्त का प्रवाह रूक जाता है इस स्थिति को इस्कीमिया कहते हैं जिसके परिणामस्वरूप इन्फार्क्शन जैसी गम्भीर स्थिति उत्पन्न हो जाती है. सिकल सेल एनीमिया के रोगियों में विभिन्न प्रकार के लक्षण उत्पन्न होते हैं, विकृति के आधार पर इन्हें चार समूहों में बाटा गया है :-
१- वैसो-ओक्ल्यूसिव क्राइसिस - यह अपने आप या किसी संक्रमण के पश्चात हो सकता है . रक्त प्रवाह में रूकावट के कारण प्रभावित अंग में  दर्द की शिकायत बनी रहती है .ऐसे शिशुओं में प्रारम्भिक लक्षण के रूप में हैण्ड-फूट सिंड्रोम मिल सकता है जिसमें हाथ-पैर में सूजन के साथ दर्द होता है . वयस्कों में हड्डियों के बड़े जोड़ों में सूजन के साथ दर्द हो सकता है . किसी-किसी को पेट में तीव्र दर्द होता है . इस्कीमिया यदि मस्तिष्क में हो तो स्ट्रोक आते हैं जिससे तुरंत मृत्यु हो सकती है या आधे शरीर का लकवा हो सकता है.फेफड़े की इस्कीमिया होने पर न्यूमोनिया जैसे लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं .
२- सीक्वेस्ट्रेशन क्राइसेस :- कभी-कभी किन्हीं कारणों से रक्त की अधिकाँश मात्रा का प्रवाह यकृत और तिल्ली की ओर हो जाता है जिससे शरीर के अन्य भागों को रक्त बहुत कम मिल पाता है , परिणामस्वरूप बड़ी तीव्रता से सर्क्युलेट्री कोलेप्स के लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं.सिकलिंग पीड़ित शिशुओं में मृत्यु का यह एक बड़ा कारण है. ऐसी स्थिति में रोगी के शरीर में जल या रक्त चढ़ाकर स्थिति को नियंत्रित किया जा सकता है.
३- एप्लास्टिक  क्राइसिस :- इसमें रक्त निर्माण की प्रक्रिया ही फेल हो जाती है. यद्यपि यह एपीसोड १० से १४ दिन का होता है और बाद में स्वतः ही समाप्त भी हो जाता है.किन्तु कुछ रोगियों में तीव्रता से रक्ताल्पता के लक्षण उत्पन्न हो सकते हैं.
४- हाइपर हीमोलिटिक क्राइसेस  :- यह स्थिति बहुत कम होती है . सिकलिंग के कुछ विशेष रोगियों में , यदि वे ऑक्सीडेंट ड्रग्स का उपयोग करते हैं या कोई संक्रमण हो जाए तो उन्हें यह क्राइसेस हो सकती है जिससे यकृत के कार्यों में अवरोध उत्पन्न  होकर जौंडिस हो सकती है . कभी-कभी तो ३ वर्ष तक के बच्चों में भी इस क्राइसिस के कारण पित्ताशय में पथरी बन जाया करती है. सेन्ट्रल नर्वस सिस्टम में रक्ताल्पता से लकवा हो सकता है. किडनी में फाइब्रोसिस होकर किडनी खराब हो सकती है.
सिकलिंग के प्रकार :-
१- सिकल सेल ट्रेट (AS) या छोटी सिकलिंग - उन्हें होती है जिनके रक्त में माँ या पिता से प्राप्त जींस में से एक सामान्य और दूसरा असामान्य होता है . यह गंभीर तो नहीं होता पर कुछ स्थितियों में गम्भीर होकर रोगी को संकट में डाल सकते हैं . ये लोग किसी भी जीवाणु के प्रति अधिक सुग्राही होते हैं जिसके कारण बच्चों में फेफड़ों के रोग, सेप्टीसेमिया , न्यूमोकोकल मेनिन्जाईटिस,  ओस्टियोमाइलाइटिस आदि होने की संभावना  बनी रहती है.
२- दूसरे प्रकार को सिकल सेल डिसीज़ (SS) या बड़ी सिकलिंग -  कहते हैं , गंभीर स्थिति इसी के कारण उत्पन्न होती है. यदि इन्होंने जीवन में संयम  न बरता तो अल्पायु में इनकी मृत्यु भी हो सकती है.
वंश परम्परा से होता है सिकलिंग :- भारत सहित विश्व के  अनेकों देशों में कुछ जाति-विशेष के लोगों में वंश परम्परा से यह रोग अगली पीढ़ियों में आगे बढ़ता है, अतः छोटे बच्चों में भी मिल सकता है ,फिर भी बच्चों में छः माह की उम्र के बाद ही इसके लक्षण प्रकट हो पाते हैं .
गंभीर हो सकता है सिकलिंग :-
सावधानी न बरतने पर , झोला छाप लोगों से इलाज़ कराने से एवं रक्ताल्पता अधिक बढ़ जाने से आधे शरीर का लकवा हो सकता है, या जोड़ों की सूजन अधिक समय तक बने रहने से अस्थियों के जोड़ों में विकृति हो कर लंगड़ापन हो सकता है या कभी-कभी मृत्यु भी हो सकती है.
सावधानी रखें दवा लेते समय :-
सिकलिंग के रोगियों को कोई अन्य रोग होने पर भी उस रोग से सम्बंधित दवाएं लेते समय सावधानी की अत्यंत आवश्यकता होती है. कुछ दवाएं ज़ो उन्हें हानि पहुंचा सकती हैं वे ये हैं - बुखार की दवाएं, सल्फोनामाइड,  मलेरिया की दवाएं,  नैफ्थाक्विनोलोन , नाइट्रओफ्यूरोंटोईन, एस्प्रिन,  आयरन के टॉनिक एवं विटामिन के. अतः अपने मन  से कभी दवाएं मत  लें.
सिकलिंग थैलेसीमिया  और मलेरिया :-  सिकलिंग एवं थैलेसीमिया एक साथ मिल सकता है पर सिकलिंग के साथ मलेरिया प्रायः नहीं मिलता .अतः बुखार आने पर जांच कराये बिना मलेरिया की दवा मत लें .
कैसे पहचानेंगे इसे ?
यदि  बच्चों  के  हाथों -पैरों  में  सूजन के साथ दर्द हो, बार-बार सर्दी, खांसी, न्यूमोनिया होता हो, अंगों में पीड़ा हो, पेट में दर्द होता हो, कमजोरी लगती हो, और दवाइयां खाने पर भी लाभ न हो रहा हो रहा हो  तो सिकलिंग का संदेह कर सकते हैं. पेट में स्पर्श करने पर तिल्ली बड़ी हुई मिल सकती है . ऐसा होने पर रक्त का सिकलिंग टेस्ट कराना चाहिये . बेहतर हो कि हीमोग्लोबिन की इलेक्ट्रोफोरेटिक जांच कराई जाय .
सिकलिंग से प्रभावित होने वाले प्रमुख अंग :- अस्थियाँ, यकृत, तिल्ली, फेफड़े, मस्तिष्क और आँख.
कब प्रकट होते हैं लक्षण?
संक्रमण होने से, ऑक्सीजन की कमी होने से, ऊंचे स्थानों में जाने से, व्यायाम अधिक करने से, शरीर में जल की कमी होने से, तेज सर्दी से , वाहनों के धुएं से, अम्लीय पदार्थों के सेवन से, गर्भावस्था में एवं प्रसव के बाद सिकलिंग (ट्रेट ) के रोगियों में रोग के लक्षण तीव्रता से प्रकट होने की संभावना रहती है.

कब कराएं जांच ?
सिकलिंग के पीड़ितों को चाहिए कि वे अपने बच्चों में नौ माह की उम्र के पहले ही हीमोग्लोबिन की इलेक्ट्रो फोरेटिक जांच करवा लें यह विश्वसनीय जांच है एवं एक बार करवा लेने के बाद बार-बार करवाने की आवश्यकता नहीं पड़ती. इस जांच में थैलेसीमिया का भी पता चल जाता है  ध्यान रहे रक्त का सामान्य सिकलिंग टेस्ट फाल्स निगेटिव या फाल्स पोसिटिव हो सकता है.
सिकलिंग से बचने के उपाय :-
१- यह एक आनुवंशिक रोग है अतः विवाह के पूर्व वर-वधु के रक्त की सिकलिंग जाच अवश्य कराएं . यदि दोनों में सिकलिंग हो तो विवाह मत कराएं. अगली पीढ़ियों में इसे रोकने का यही एक मात्र उपाय है. २- गर्भावस्था के समय संक्रमण से बचाव, कम से कम दवाओं का प्रयोग, एक्स-रे आदि परीक्षणों से यथासंभव बचाव करें तथा पौष्टिक आहार देवें, गर्भिणी का सुरक्षित प्रसव भी एक आवश्यक कदम है.
उपचार की व्यवस्था :-
१- सिगरेट, शराब आदि नशों से परहेज़ करें २- अधिक परिश्रम से बचें,३ - संक्रमण से बचाव करें, ४ पौष्टिक एवं सुपाच्य आहार का सेवन करें, ५- लक्षणों की शान्ति हेतु धैर्य पूर्वक आयुर्वेदिक दवाओं का सेवन करें.
सिकलिंग में लाभदायक है :-
ख़ूब पानी पीना, मकोय, पुनर्नवा, चौलाई, डोडा शाक, मूंग दाल, सहजन, सिंघाड़ा, कमल नाल (ढेंस), कमल का बीज, दूध, मधु, रसीले तथा मीठे फल और खुले हवादार स्थानों में रहना.
सिकलिंग में हानिकारक है:-
तले एवं अम्लीय पदार्थ , मांसाहार, फावा-बीन, कोई भी नशा, किसी भी प्रकार का संक्रमण, वाहनों का धुंआ, ऊंचे  स्थानों पर रहना या पहाड़ों पर जाना, रेडियेशन, डिहाइड्रेशन,  एसिडोसिस एवं बिना डाक्टर की सलाह के कोई भी दवा सेवन करना.







चिकन पॉक्स/चेचक रोग के लक्षण,चिकित्सा और बचने के उपाय

चेचक/चिकन पॉक्स/छोटी माता या शीतला सभी एक ही रोग है, जो छुआछुत का  रोग है। रोगी को छूने से या उसके कपडे आदि पहनने से चिकन पॉक्स/चेचक एक से दुसरे को हो जातिही । चिकन पॉक्स/चेचक की फुंसियों के खुरंड हवा द्वारा इधर-उधर उड़कर रोग फैलाते हैं । इसलिए इस रोग से बचने का प्रबंध होना चाहिए। लेकिन सभी प्रान्त के रहने वाले हिन्दू चेचक को रोग न मानकर शीतला नामक माता का प्रकोप मानते हैं  इलसिए चेचक की दवा न करके झाड़-फूंक ही अधिकतर करते हैं । लेकिन चेचक छूत से लगने वाला रोग हैं ।


छोटी माता जिसे चेचक भी कहा जाता हैं वह जीवन में प्राय: एक ही बार निकलती हैं । बूढ़े और जवानों को यह कम होती है । बालकों को चिकन पॉक्स/चेचक अधिक होती हैं । ठन्डे देश के निवासी गोरों तथा आदिवासियों को चेचक सबसे ज्यादा तकलीफ देती हैं । चेचक होने पर गोरे तथा आदिवासी बहुत कम बचते हैं । यह रोग अधिकतर बसंत ऋतु आने पर फरवरी-मार्च में फैलता हैं । 

चेचक/चिकन पॉक्स और छोटी माता  रोग के लक्षण


  1. रोगी को कम्प लग कर बड़े जोर का बुखार होता हैं । बुखार के साथ, उलटी, उबकाई, सिरदर्द, बेचैनी आदि लक्षण वर्तमान रहते हैं ।
  2. तीसरे या चौथे दिन शरीर पर लाल-लाल निशान दिखलाई देते हैं । ये निशान सबसे पहले माथा, गर्दन, छाती आदि में दीखते हैं । बाद में समूचे शरीर में फ़ैल जाते हैं ।
  3. भयानक चेचक होने से नाक, आँख, जीभ आदि जगहों में भी फुंसियाँ निकल छालों को तरह हो जाती हैं ।
  4. निकलने वाली फुंसियाँ 48 घंटो के भीतर पहले द्रव पदार्थ से भर कर उभरे हुए छालों की तरह आती हैं । फिर 48 घंटो के भीतर पीव पैदा करती हैं
  5. जब रोग में आराम होने लगता है तब प्राय: 11 वें दिन फुंसियाँ सुख कर खुरण्ड पैदा होने लगते हैं और रोग के सब लक्षण कम हो जाते हैं तथा रोगी 3-4 दिन के भीतर बिलकुल स्वस्थ हो जाता हैं ।
  6. जब यह रोग बढाव पर होता हैं तो बुखार बढ़ जाता हैं। रोगी प्रलाप करने लगता हैं, शरीर कांपने लगता है और रोगी अंत में प्राण त्याग देता है ।
  7. छोटी माता /चेचक के कारण अक्सर निमोनिया, आँख फूली, अंधापन आदि उपद्रव पैदा हो जाता हैं ।
  8. चिकन पॉक्स/चेचक में आराम होने पर मनुष्य को कुरूप बना देती हैं।
  9. चेचक के  दाग जिन्दगी भर बने रहते हैं । चेचक अपना प्रमाण जीवन भर के छोड़ देती हैं । 

चिकन पॉक्स/चेचक की चिकित्सा :-


  1. जिस दिन चेचक के दाने निकालें उस दिन रोगी को 5-7 मुनक्का के बीज निकल कर खिला देने चाहिए।
  2. दूध में जरा सा केशर मिला कर पिलाना चाहिए इससे चेचक का जहर खून से निकल कर फुंसियों में आ जाता हैं ।
  3. घर के बाहर या द्वार या खिड़कियों पर जहाँ से धूप आती हो उधर लाल रंग कर कपड़ा लटका देना चाहिए ।
  4. प्यास की अधिकता हो तो ज्वरोक्त ‘षडंग पानीय’ पीने को देना चाहिए ।
  5. निमोनिया, खांसी आदि उपद्रव के होने से कोई नुकसान नहीं होता हैं । लेकिन आँखों की सफाई और रक्षा का पूरा ध्यान देना चाहिए ।
  6. नीम के पत्तों को चारपाई पर बिछाना चाहिए तथा नीम की टहनी से मक्खी हटाना चाहिए । 

चिकन पॉक्स/चेचक से बचने के उपाय :-


  1. चिकन पॉक्स/चेचक से बचने का एक मात्र निश्चित उपाय हैं टिका लगवाना । बच्चे के जन्म के 12 महीने बाद ही टिका अवश्य लगवा देना चाहिए। बच्चे को टिका लगवाने के बाद चेचक बिलकुल नहीं होती हैं । टीके का प्रभाव तीन वर्ष तक होता हैं । अत: तीन वर्ष बाद पुन: टिका लगवाना चाहिए । 
  2. वसंत ऋतु के आरम्भ में प्राय: चेचक फैलती हैं इसलिए उस समय घर के सभी लोगों को टिका लगवाना चाहिए।
  3. घर में चिकन पॉक्स/चेचक होने पर सब लोगों को खूब सावधान रहना चाहिए । रोगी के छूने पर साबुन लगाकर हाथ धोना चाहिए ।
  4. रोगी के कमरे में किसी भी बच्चे को नहीं घुसने देना चाहिए ।
  5. घर में बड़े लोगों को भी बिना आवश्कयता के रोगी के पास न जाना चाहिए । रोगी के बिस्तरे और कपडे किसी की व्यवहार में न लाना चाहिए। 
  6. घरभर में दो बार धूप देना चाहिए। हर तरह सफाई का ध्यान रखने से रोग फैलने नहीं पाता ।
बिना सावधानी के घर  में यह रोग हो जाने से सब बच्चों में फैलते हुए देखा गया । रोगी बालक को चेचक के खुरण्ड भी नहीं नोंचने देने चाहिए ।